इतिहास और राजनीति >> कौटिल्य के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार कौटिल्य के राजनीतिक एवं सामाजिक विचारमणिशंकर प्रसाद
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कौटिल्य के राजनीतिक व सामाजिक विचार...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
भारतीय राजनीतिक चिंतन के इतिहास में कौटिल्य एक ऐसा नाम है जिसके
व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में विलक्षणता है। कौटिल्य का
‘अर्थशास्त्र’ कई संदर्भों में दुरूह होते हुए भी
अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था, प्रशासन और राजनीति पर
लिखी गई एक उत्कृष्ट कृति है। इसे राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र,
अर्थशास्त्र और विधिशास्त्र का विश्वकोश कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं
होगी। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में उल्लिखित विचार
वह सम्मतियाँ आज भी उपयोगी और प्रासंगिक हैं। कौटिल्य के बिना भारतीय
राजनीतिक चिंतन के इतिहास का अध्ययन अपूर्ण और अधूरा समझा जायेगा। यही
कारण है कि भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में राजनीतिशास्त्र व
प्राचीन भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रमों में कौटिल्य के राजनीतिक व सामाजिक
विचारों को स्थान दिया गया है।
कौटिल्य के राजनीतिक व सामाजिक विचारों पर हिन्दी में पुस्तकों का अभाव है, फलतः हिन्दी में पठन-पाठन व शोध करने वाले छात्र-छात्राओं को काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई को ध्यान में रखकर ही इस पुस्तक की रचना की गयी है। पुस्तक लेखन में मूल ‘अर्थशास्त्र’ व उसके हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवादों के अतिरिक्त, कौटिल्य पर उपलब्ध अधिकांश ग्रंथों और रचनाओं का उपयोग किया गया है। लेखक इन सभी विद्वानों का आभारी है।
प्रस्तुत पुस्तक भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों के ऑनर्स और एम. ए. के छात्रों के अलावा शोधकर्ताओं के लिए भी उपयोगी होगी। पुस्तक की भाषा एवं शैली को सरल एवं बोधगम्य बनाने का प्रयास किया गया है, जिससे हिन्दी भाषा-भाषी छात्रों के अलावा अहिन्दी भाषा-भाषी छात्र भी लाभान्वित हो सकें।
पुस्तक लेखन में मुझे नालन्दा कॉलेज के प्राचीन भारत व एशियाई अध्ययन के स्नातकोत्तर विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, डॉ. अरुण कुमार सिन्हा तथा नव नालन्दा महाविहार के पुस्तकाध्यक्ष डॉ. मिथिलेश्वर प्रसाद से यथेष्ट सहयोग मिला है। मैं दोनों का आभारी हूँ।
इस पुस्तक की रचना में मोतीलाल बनारसी दास की पटना शाखा के प्रबंधक श्री कमला शंकर सिंह मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। उन्होंने न केवल पुस्तक प्रकाशन में गहरी अभिरुचि ली है, वरन् लेखक के क्रम में भी अनेक बहुमूल्य सुझाव दिये हैं। मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूँ। मैं उन समस्त मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे पुस्तक लेखन में प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग देकर अनुप्रेरित किया है। अंत में, मैं अपने शिष्य श्री अशोक कुमार एम.ए., बी.एल. के प्रति आभार व्यक्त किये बिना नहीं रह सकता जिसने पुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने में तन-मन से सहायता प्रदान की है।
कौटिल्य के राजनीतिक व सामाजिक विचारों पर हिन्दी में पुस्तकों का अभाव है, फलतः हिन्दी में पठन-पाठन व शोध करने वाले छात्र-छात्राओं को काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई को ध्यान में रखकर ही इस पुस्तक की रचना की गयी है। पुस्तक लेखन में मूल ‘अर्थशास्त्र’ व उसके हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवादों के अतिरिक्त, कौटिल्य पर उपलब्ध अधिकांश ग्रंथों और रचनाओं का उपयोग किया गया है। लेखक इन सभी विद्वानों का आभारी है।
प्रस्तुत पुस्तक भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों के ऑनर्स और एम. ए. के छात्रों के अलावा शोधकर्ताओं के लिए भी उपयोगी होगी। पुस्तक की भाषा एवं शैली को सरल एवं बोधगम्य बनाने का प्रयास किया गया है, जिससे हिन्दी भाषा-भाषी छात्रों के अलावा अहिन्दी भाषा-भाषी छात्र भी लाभान्वित हो सकें।
पुस्तक लेखन में मुझे नालन्दा कॉलेज के प्राचीन भारत व एशियाई अध्ययन के स्नातकोत्तर विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, डॉ. अरुण कुमार सिन्हा तथा नव नालन्दा महाविहार के पुस्तकाध्यक्ष डॉ. मिथिलेश्वर प्रसाद से यथेष्ट सहयोग मिला है। मैं दोनों का आभारी हूँ।
इस पुस्तक की रचना में मोतीलाल बनारसी दास की पटना शाखा के प्रबंधक श्री कमला शंकर सिंह मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। उन्होंने न केवल पुस्तक प्रकाशन में गहरी अभिरुचि ली है, वरन् लेखक के क्रम में भी अनेक बहुमूल्य सुझाव दिये हैं। मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूँ। मैं उन समस्त मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे पुस्तक लेखन में प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग देकर अनुप्रेरित किया है। अंत में, मैं अपने शिष्य श्री अशोक कुमार एम.ए., बी.एल. के प्रति आभार व्यक्त किये बिना नहीं रह सकता जिसने पुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने में तन-मन से सहायता प्रदान की है।
अध्याय-1
सामान्य परिचय
जीवन-चरित्र
कौटिल्य का नामकरण, जन्म तिथि और जन्म स्थान तीनों ही विवाद के विषय रहे
हैं। कौटिल्य के नाम के संबंध में विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अनुवादक पंडित
शामाशास्त्री ने कौटिल्य नाम का प्रयोग किया है। ‘कौटिल्य
नाम’ की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए पंडित शामाशास्त्री ने
विष्णु-पुराण का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है—
तान्नदान् कौटल्यो
ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।
इस संबंध में एक विवाद और उत्पन्न हुआ है, और वह है
‘कौटिल्य’ और ‘कौटल्य’ का। गणपति
शास्त्री ने ‘कौटिल्य’ के स्थान पर
‘कौटल्य’ को ज्यादा प्रमाणिक माना है। उनके अनुसार
कुटल गोत्र होने के कारण कौटल्य नाम सही और संगत प्रतीत होता है।
कामन्दकीय नीतिशास्त्र के अन्तर्गत कहा गया है—
‘‘कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य
संज्ञा।
सांबाशिव शास्त्री ने कहा है कि गणपतिशास्त्री ने संभवतः कौटिल्य को
प्राचीन संत कुटल का वंशज मानकर कौटल्य नाम का प्रयोग किया है, परन्तु इस
बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कौटिल्य संत कुटल के वंश और
गोत्र का था। ‘कोटिल्य’ और
‘कौटल्य’ नाम का विवाद और भी कई विद्वानों ने उठाया
है। वी. ए. रामास्वामी ने गणपतिशास्त्री के कथन का समर्थन किया है। आधुनिक
विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने
कौटल्य और कौटिल्य नाम के विवाद को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उनके
मतानुसार इस प्रकार की भ्रांति हिज्जे के हेर-फेर के कारण हो सकती है।
अधिकांश पाश्चात्य लेखकों ने कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। भारत में
विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है, बल्कि ज्यादातर कौटिल्य नाम
का ही प्रयोग किया है। इस संबंध में राधाकांत का कथन भी विशेष रूप से
उल्लेखनीय है। उसने अपनी रचना ‘शब्दकल्पद्रम’ में कहा
है
‘‘अस्तु कौटल्य इति वा कौटिल्य इति या चाणक्यस्य
गोत्रनामधेयम्।
कौटिल्य के और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें चाणक्य नाम
प्रसिद्ध है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से पुकाररने वाले कई विद्वानों का
मत है कि चाणक का पुत्र होने के कारण यह चाणक्य कहलाया। दूसरी ओर कुछ
विद्वानों के कथानानुसार उसका जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था,
इसलिए उसे चाणक्य कहा गया है, यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं
मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति है।
उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उसका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उसके पिता ने उसका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई संदर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वाल्सायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है, परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने ‘अर्थशास्त्र’ के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इसलिए हम भी कौटिल्य नाम का प्रयोग करना ही श्रेयस्कर समझते हैं।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि ‘अर्थशास्त्र’ किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य पंडित या आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उस ‘अर्थशास्त्र’ का लेखन नहीं माना जा सकता है। यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई संदर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।
यद्यपि कौटिल्य के जीवन-चरित के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है, परन्तु जो तथ्य मिले हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कौटिल्य का जन्म ईसा के चार वर्ष पूर्व हुआ। उसके जन्मस्थान के संबंध में मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम का रहने वाला द्रविण ब्राह्मण था। वह जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार केरल भी उसका जन्म स्थान बताया जाता है। इस संबंध में उसके द्वारा चरणी नदी का उल्लेख इस बात के प्रमाण के रूप में दिया जाता है। कुछ संदर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आया था, जहाँ उसकी पुत्री खो गयी। वह फिर केरल वापस नहीं लौटा और मगध में आकर बस गया। इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उसे केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं। कई विद्वानों ने उसे मगध का ही मूल निवासी माना है। कुछ बौद्ध साहित्यों ने उसे तक्षशिक्षा का निवासी बताया है। कौटिल्य के जन्मस्थान के संबंध में अत्यधिक मतभेद रहने के कारण निश्चित रूप से यह कहना कि उसका जन्म स्थान कहाँ था, कठिन है, परंतु कई संदर्भों के आधार पर तक्षशिला को उसका जन्म स्थान मानना ठीक होगा। वी. के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि कई संदर्भों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि अलेक्जेंडर को अपने आक्रमण के अभियान में युवा कौटिल्य से भेंट हुई थी। चूँकि अलेक्जेंडर का आक्रमण अधिकतर तक्षशिला क्षेत्र में हुआ था, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि कौटिल्य का जन्म स्थान तक्षशिला क्षेत्र में ही रहा होगा।2 कौटिल्य के पिता का नाम चणक था। वह एक गरीब ब्राह्मण था और किसी तरह अपना गुजर-बसर करता था। अतः स्पष्ट है कि कौटिल्य का बचपन गरीबी और दिक्कतों में गुजरा होगा। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कहीं कुछ विशेष जिक्र नहीं मिलता है, परन्तु उसकी बुद्धि का प्रखरता और उसकी विद्वता उसके विचारों से परिलक्षित होती है। वह कुरूप होते हुए भी शारीरिक रूप से बलिष्ठ था। उसकी पुस्तक ‘अर्शशास्त्र’ के अवलोकन से उसकी प्रतिभा, उसके बहुआयामी व्यक्तित्व और दूरदर्शिता का पूर्ण आभास होता है।
1.महावंशटिका, श्रीलंका
2.V.K. Subramaniyam, Maxims of Chanakya, New Delhi, 1980, p.2
कौटिल्य के बारे में यह कहा जाता है कि वह बड़ा ही स्वाभिमानी एवं क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद ने श्राद्ध के अवसर पर कौटिल्य को अपमानित किया था। कौटिल्य ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देगा तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगा। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री भी बना।
कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उसकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य के रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उसकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उसे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।
अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सही प्रतीक था। उसने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहता था और कहा जाता है कि उसके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे।
उसकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उसने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उसने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उसे धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक ‘वितरागी’, ‘तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाला व्यक्ति था, जिसका जीवन आज भी अनुकरणीय है।
एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उसे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उसका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। मैकियावेली की भाँति कौटिल्य ने भी राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है।
उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उसका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उसके पिता ने उसका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई संदर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वाल्सायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है, परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने ‘अर्थशास्त्र’ के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इसलिए हम भी कौटिल्य नाम का प्रयोग करना ही श्रेयस्कर समझते हैं।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि ‘अर्थशास्त्र’ किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य पंडित या आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उस ‘अर्थशास्त्र’ का लेखन नहीं माना जा सकता है। यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई संदर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।
यद्यपि कौटिल्य के जीवन-चरित के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है, परन्तु जो तथ्य मिले हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कौटिल्य का जन्म ईसा के चार वर्ष पूर्व हुआ। उसके जन्मस्थान के संबंध में मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम का रहने वाला द्रविण ब्राह्मण था। वह जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार केरल भी उसका जन्म स्थान बताया जाता है। इस संबंध में उसके द्वारा चरणी नदी का उल्लेख इस बात के प्रमाण के रूप में दिया जाता है। कुछ संदर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आया था, जहाँ उसकी पुत्री खो गयी। वह फिर केरल वापस नहीं लौटा और मगध में आकर बस गया। इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उसे केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं। कई विद्वानों ने उसे मगध का ही मूल निवासी माना है। कुछ बौद्ध साहित्यों ने उसे तक्षशिक्षा का निवासी बताया है। कौटिल्य के जन्मस्थान के संबंध में अत्यधिक मतभेद रहने के कारण निश्चित रूप से यह कहना कि उसका जन्म स्थान कहाँ था, कठिन है, परंतु कई संदर्भों के आधार पर तक्षशिला को उसका जन्म स्थान मानना ठीक होगा। वी. के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि कई संदर्भों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि अलेक्जेंडर को अपने आक्रमण के अभियान में युवा कौटिल्य से भेंट हुई थी। चूँकि अलेक्जेंडर का आक्रमण अधिकतर तक्षशिला क्षेत्र में हुआ था, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि कौटिल्य का जन्म स्थान तक्षशिला क्षेत्र में ही रहा होगा।2 कौटिल्य के पिता का नाम चणक था। वह एक गरीब ब्राह्मण था और किसी तरह अपना गुजर-बसर करता था। अतः स्पष्ट है कि कौटिल्य का बचपन गरीबी और दिक्कतों में गुजरा होगा। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कहीं कुछ विशेष जिक्र नहीं मिलता है, परन्तु उसकी बुद्धि का प्रखरता और उसकी विद्वता उसके विचारों से परिलक्षित होती है। वह कुरूप होते हुए भी शारीरिक रूप से बलिष्ठ था। उसकी पुस्तक ‘अर्शशास्त्र’ के अवलोकन से उसकी प्रतिभा, उसके बहुआयामी व्यक्तित्व और दूरदर्शिता का पूर्ण आभास होता है।
1.महावंशटिका, श्रीलंका
2.V.K. Subramaniyam, Maxims of Chanakya, New Delhi, 1980, p.2
कौटिल्य के बारे में यह कहा जाता है कि वह बड़ा ही स्वाभिमानी एवं क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद ने श्राद्ध के अवसर पर कौटिल्य को अपमानित किया था। कौटिल्य ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देगा तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगा। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री भी बना।
कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उसकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य के रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उसकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उसे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।
अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सही प्रतीक था। उसने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहता था और कहा जाता है कि उसके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे।
उसकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उसने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उसने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उसे धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक ‘वितरागी’, ‘तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाला व्यक्ति था, जिसका जीवन आज भी अनुकरणीय है।
एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उसे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उसका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। मैकियावेली की भाँति कौटिल्य ने भी राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है।
कौटिल्य की कृतियाँ
कौटिल्य की कृतियों के संबंध में भी कई विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता
है। कौटिल्य की कितनी कृतियाँ हैं, इस संबंध में कोई निश्चित सूचना उपलब्ध
नहीं है। कौटिल्य की सबसे महत्त्पूर्ण कृति
‘अर्थशास्त्र’ की चर्चा सर्वत्र मिलती है, किन्तु
अन्य रचनाओं के संबंध में कुछ विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, यों
‘धातुकौटिल्या’ और ‘राजनीति’
नामक रचनाओं के साथ कौटिल्य का नाम जोड़ा गया है। कुछ विद्वानों का यह
मानना है कि ‘अर्थशास्त्र’ के अलावा यदि कौटिल्य की
अन्य रचनाओं का उल्लेख मिलता है, तो वह कौटिल्य की सूक्तियों और कथनों का
संकलन हो सकता है।
अर्थशास्त्र—कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ राजनीतिक सिद्धांतों की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस संबंध में यह प्रश्न उठता है कि कौटिल्य ने अपनी पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्र’ क्यों रखा ? उस समय अर्थशास्त्र को राजनीति और प्रशासन का शास्त्र माना जाता था। महाभारत में इस संबंध में एक प्रसंग है, जिसमें अर्जुन को अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है।
अर्थशास्त्र—कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ राजनीतिक सिद्धांतों की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस संबंध में यह प्रश्न उठता है कि कौटिल्य ने अपनी पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्र’ क्यों रखा ? उस समय अर्थशास्त्र को राजनीति और प्रशासन का शास्त्र माना जाता था। महाभारत में इस संबंध में एक प्रसंग है, जिसमें अर्जुन को अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है।
‘‘समाप्तवचने तस्मिन्नर्थशास्त्र विशारदः।
पार्थो धर्मार्थतत्त्वज्ञो जगौ वाक्यमनन्द्रित:।।3
पार्थो धर्मार्थतत्त्वज्ञो जगौ वाक्यमनन्द्रित:।।3
निश्चित रूप से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी राजशास्त्र के रूप में लिया गया
होगा, यों उसने अर्थ की कई व्याख्याएँ की हैं। कौटिल्य ने कहा
है—‘‘मनुष्याणां
वृतिरर्थः’’4 अर्थात् मनुष्यों की जीविका को अर्थ
कहते हैं। अर्थशास्त्र की व्याख्या करते हुए उसने कहा
है—‘‘तस्या पृथिव्या लाभपालनोपायः
शास्त्रमर्थ-शास्त्रमिति।’’5 (मनुष्यों से युक्त भूमि
को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने वाले उपायों का निरूपण करने वाला
शास्त्र अर्थशास्त्र कहलाता है।) इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि
‘अर्थशास्त्र’ के अन्तर्गत राजव्यवस्था और
अर्थव्यवस्था दोनों से संबंधित सिद्धांतों का समावेश है। वस्तुतः कौटिल्य
‘अर्थशास्त्र’ को केवल राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था
का शास्त्र कहना उपयुक्त नहीं होगा। वास्तव में, यह अर्थव्यवस्था,
राजव्यस्था, विधि व्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्म व्यवस्था से संबंधित
शास्त्र है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के पूर्व और भी कई अर्थशास्त्रों की रचना की गयी थी, यद्यपि उनकी पांडुलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। भारत में प्राचीन काल से ही अर्थ, काम और धर्म के संयोग और सम्मिलन के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं और उसके लिये शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों में विशद् चर्चाएँ की गयी हैं। कौटिल्य ने भी ‘अर्थशास्त्र’ में अर्थ, काम और धर्म की प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की है। वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में भी अर्थ, धर्म और काम के संबंध में सूत्रों की रचना की गयी है।
अपने पूर्व अर्थशास्त्रों की रचना की बात स्वयं कौटिल्य ने भी स्वीकार किया है। अपने ‘अर्थशास्त्र’ में कई संदर्भों में उसने आचार्य वृहस्पति, भारद्वाज, शुक्राचार्य, पराशर, पिशुन, विशालाक्ष आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। कौटिल्य के पूर्व अनेक आचार्यों के ग्रंथों का नामकरण दंडनीति के रूप में किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कौटिल्य के पूर्व शास्त्र दंडनीति कहे जाते थे और वे अर्थशास्त्र के समरूप होते थे। परन्तु जैसा कि अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है कि दंडनीति और अर्थशास्त्र दोनों समरूप नहीं हैं। यू. एन. घोषाल के कथनानुसार अर्थशास्त्र ज्यादा व्यापक शास्त्र है, जबकि दंडनीति मात्र उसकी शाखा है।6
3. महाभारत, 12. 161. 9
4. अर्थशास्त्र, अधिकरण-15, अध्याय-1
5. वही
6. U. N. Ghosal: A History of Political Ideas. Oxford Univ. Press, Bombay. 1959.p.84
कौटिल्य के पाश्चात्य लिखे गये शास्त्र नीतिशास्त्र के नाम से विख्यात हुए, जैसे कामंदक नीतिसार। वैसे कई विद्वानों ने अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र की अपेक्षा ज्यादा व्यापक माना है। परन्तु, अधिकांश विद्वानों की राय में नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों समरूप हैं तथा दोनों के विषय क्षेत्र भी एक ही हैं। स्वयं कामंदक ने नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र को समरूप माना है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के पूर्व और उसके बाद भी ‘अर्थशास्त्र’ जैसे शास्त्रों की रचना की गयी।
‘अर्थशास्त्र’ के रचनाकार के संबंध में विवाद
‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार क्या कौटिल्य ही था ? इस संबंध में ऐसे विद्वानों की अच्छी-खासी संख्या है जो यह मानते हैं कि कौटिल्य ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार नहीं था। ऐसे विद्वानों में पाश्चात्य विद्वानों की संख्या ज्यादा है। स्टेन, जॉली, विंटरनीज व कीथ इस प्रकार के विचार के प्रतिपादक हैं। भारतीय विद्वान आर. जी. भण्डारकर ने भी इसका समर्थन किया है। भंडारकर ने कहा है कि पातंजलि ने ‘महाभाष्य’ में कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया है। ‘अर्थशास्त्र’ के रचयिता के रूप में कौटिल्य को नहीं मान्यता देनेवालों ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं—
1. ‘अर्थशास्त्र’ में मौर्य साम्राज्य या पाटलिपुत्र का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता है। यदि चन्द्रगुप्त का मंत्री कौटिल्य अर्थशास्त्र का रचनाकार होता तो ‘अर्थशास्त्र’ में उसका कहीं-न-कहीं कुछ जिक्र करता ही।
2. इस संबंध में यह कहा जाता है कि ‘अर्थशास्त्र’ की विषय-वस्तु जिस प्रकार की है, उससे यह नहीं प्रतीत होता है कि इसका रचनाकार कोई व्यावहारिक राजनीतिज्ञ होगा। निःसन्देह कोई शास्त्रीय पंडित ने ही इसकी रचना की होगी। कौटिल्य फर्जी नाम प्रतीत होता है।
3. चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य यदि ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार होता तो उसके सूत्र एवं उक्तियाँ बड़े राज्यों के संबंध में होते, परन्तु ‘अर्थशास्त्र’ के उद्धरण एवं उक्तियाँ लघु एवं मध्यम राज्यों के लिये सम्बोधित हैं। अतः स्पष्ट है कि ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार कौटिल्य नहीं था। डॉ. बेनी प्रसाद के अनुसार ‘अर्थशास्त्र’ में जिस आकार या स्वरूप के राज्य का जिक्र किया गया है, निःसन्देह वह मौर्य, कलिंग या आंध्र साम्राज्य के आधार से मेल नहीं खाता है।7
4. विंटरनीज ने कहा है कि मेगास्थनीज ने, जो लम्बे अरसे तक चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा और जिसने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में चन्द्रगुप्त के दरबार के संबंध में बहुत कुछ लिखा है, कौटिल्य के बारे में कुछ नहीं लिखा है, और न ही उसकी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ की कहीं कोई चर्चा की है। यदि ‘अर्थशास्त्र’ जैसे विख्यात शास्त्र का लेखक कौटिल्य चन्द्रगुप्त का मंत्री होता तो मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ में उसका जिक्र अवश्य किया जाता।
5. मेगास्थनीज और कौटिल्य के कई विवरणों में मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए मेगास्थनीज के अनुसार उस समय भारतीय रासायनिक प्रक्रिया से अवगत नहीं थे, भारतवासियों को केवल पाँच धातुओं की जानकारी थी, जबकि ‘अर्थशास्त्र’ में इन सबों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रशासकीय संरचना, उद्योग-व्यवस्था, वित्त-व्यवस्था आदि के संबंध में भी मेगास्थनीज और ‘अर्थशास्त्र’ का लेखक चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य नहीं हो सकता है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के पूर्व और भी कई अर्थशास्त्रों की रचना की गयी थी, यद्यपि उनकी पांडुलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। भारत में प्राचीन काल से ही अर्थ, काम और धर्म के संयोग और सम्मिलन के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं और उसके लिये शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों में विशद् चर्चाएँ की गयी हैं। कौटिल्य ने भी ‘अर्थशास्त्र’ में अर्थ, काम और धर्म की प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की है। वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में भी अर्थ, धर्म और काम के संबंध में सूत्रों की रचना की गयी है।
अपने पूर्व अर्थशास्त्रों की रचना की बात स्वयं कौटिल्य ने भी स्वीकार किया है। अपने ‘अर्थशास्त्र’ में कई संदर्भों में उसने आचार्य वृहस्पति, भारद्वाज, शुक्राचार्य, पराशर, पिशुन, विशालाक्ष आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। कौटिल्य के पूर्व अनेक आचार्यों के ग्रंथों का नामकरण दंडनीति के रूप में किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कौटिल्य के पूर्व शास्त्र दंडनीति कहे जाते थे और वे अर्थशास्त्र के समरूप होते थे। परन्तु जैसा कि अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है कि दंडनीति और अर्थशास्त्र दोनों समरूप नहीं हैं। यू. एन. घोषाल के कथनानुसार अर्थशास्त्र ज्यादा व्यापक शास्त्र है, जबकि दंडनीति मात्र उसकी शाखा है।6
3. महाभारत, 12. 161. 9
4. अर्थशास्त्र, अधिकरण-15, अध्याय-1
5. वही
6. U. N. Ghosal: A History of Political Ideas. Oxford Univ. Press, Bombay. 1959.p.84
कौटिल्य के पाश्चात्य लिखे गये शास्त्र नीतिशास्त्र के नाम से विख्यात हुए, जैसे कामंदक नीतिसार। वैसे कई विद्वानों ने अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र की अपेक्षा ज्यादा व्यापक माना है। परन्तु, अधिकांश विद्वानों की राय में नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों समरूप हैं तथा दोनों के विषय क्षेत्र भी एक ही हैं। स्वयं कामंदक ने नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र को समरूप माना है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के पूर्व और उसके बाद भी ‘अर्थशास्त्र’ जैसे शास्त्रों की रचना की गयी।
‘अर्थशास्त्र’ के रचनाकार के संबंध में विवाद
‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार क्या कौटिल्य ही था ? इस संबंध में ऐसे विद्वानों की अच्छी-खासी संख्या है जो यह मानते हैं कि कौटिल्य ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार नहीं था। ऐसे विद्वानों में पाश्चात्य विद्वानों की संख्या ज्यादा है। स्टेन, जॉली, विंटरनीज व कीथ इस प्रकार के विचार के प्रतिपादक हैं। भारतीय विद्वान आर. जी. भण्डारकर ने भी इसका समर्थन किया है। भंडारकर ने कहा है कि पातंजलि ने ‘महाभाष्य’ में कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया है। ‘अर्थशास्त्र’ के रचयिता के रूप में कौटिल्य को नहीं मान्यता देनेवालों ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं—
1. ‘अर्थशास्त्र’ में मौर्य साम्राज्य या पाटलिपुत्र का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता है। यदि चन्द्रगुप्त का मंत्री कौटिल्य अर्थशास्त्र का रचनाकार होता तो ‘अर्थशास्त्र’ में उसका कहीं-न-कहीं कुछ जिक्र करता ही।
2. इस संबंध में यह कहा जाता है कि ‘अर्थशास्त्र’ की विषय-वस्तु जिस प्रकार की है, उससे यह नहीं प्रतीत होता है कि इसका रचनाकार कोई व्यावहारिक राजनीतिज्ञ होगा। निःसन्देह कोई शास्त्रीय पंडित ने ही इसकी रचना की होगी। कौटिल्य फर्जी नाम प्रतीत होता है।
3. चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य यदि ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार होता तो उसके सूत्र एवं उक्तियाँ बड़े राज्यों के संबंध में होते, परन्तु ‘अर्थशास्त्र’ के उद्धरण एवं उक्तियाँ लघु एवं मध्यम राज्यों के लिये सम्बोधित हैं। अतः स्पष्ट है कि ‘अर्थशास्त्र’ का रचनाकार कौटिल्य नहीं था। डॉ. बेनी प्रसाद के अनुसार ‘अर्थशास्त्र’ में जिस आकार या स्वरूप के राज्य का जिक्र किया गया है, निःसन्देह वह मौर्य, कलिंग या आंध्र साम्राज्य के आधार से मेल नहीं खाता है।7
4. विंटरनीज ने कहा है कि मेगास्थनीज ने, जो लम्बे अरसे तक चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा और जिसने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में चन्द्रगुप्त के दरबार के संबंध में बहुत कुछ लिखा है, कौटिल्य के बारे में कुछ नहीं लिखा है, और न ही उसकी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ की कहीं कोई चर्चा की है। यदि ‘अर्थशास्त्र’ जैसे विख्यात शास्त्र का लेखक कौटिल्य चन्द्रगुप्त का मंत्री होता तो मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ में उसका जिक्र अवश्य किया जाता।
5. मेगास्थनीज और कौटिल्य के कई विवरणों में मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए मेगास्थनीज के अनुसार उस समय भारतीय रासायनिक प्रक्रिया से अवगत नहीं थे, भारतवासियों को केवल पाँच धातुओं की जानकारी थी, जबकि ‘अर्थशास्त्र’ में इन सबों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रशासकीय संरचना, उद्योग-व्यवस्था, वित्त-व्यवस्था आदि के संबंध में भी मेगास्थनीज और ‘अर्थशास्त्र’ का लेखक चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य नहीं हो सकता है।
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